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International Day Of Persons With Disabilities And Some Success Stories In Delhi – अंतरराष्ट्रीय दिव्यांग जन दिवस : मुकाम पाने के लिए तोड़ी विकलांगता की ‘बेड़ियां’

सार

अमर उजाला से बातचीत में बोलीं दो शख्सियत।कहा- अब अक्षमता से नहीं, क्षमता से है पहचान। हौसला है तो अभिशाप नहीं बन सकती दिव्यांगता।

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दिव्यांगता कोई अभिशाप नहीं है। इसके साथ भी सफलता की सीढ़ी चढ़ा जा सकता है। हर साल 3 दिसंबर को पूरी दुनिया अंतरराष्ट्रीय दिव्यांग जन दिवस मनाती है, ताकि इन्हें भी समाज की मुख्य धारा से जोड़ा जा सके। 

इसमें सामान्य लोगों से सहायता भी मांगी जाती है और जागरूक भी किया जाता है, परंतु कुछ दिव्यांग ऐसे भी हैं जिनकी पहचान अक्षमता से नहीं क्षमता से है। वह तन से दिव्यांग हैं, लेकिन मन से नहीं। ‘अमर उजाला’ ऐसे दो लोगों की कहानी लेकर आया है, जिन्होंने बंदिशों की बेड़ियों को तोड़कर कामयाबी हासिल की है।

55 हजार से ज्यादा दिव्यांग
दिल्ली में 55 हजार से ज्यादा दिव्यांग हैं। संयुक्त राष्ट्र के इन आंकड़ों से साफ है कि करीब 15 फीसदी आबादी किसी न किसी दिव्यांगता की श्रेणी में आती है और ऐसे 80 फीसदी लोग विकासशील देशों में है। देश की राजधानी दिल्ली की बात करें तो यहां 55 हजार से अधिक दिव्यांग मतदाता हैं और कुल आबादी में भी इनकी बड़ी भागीदारी है। 

दिल्ली चुनाव कार्यालय के अनुसार, साल 2019 के लोकसभा चुनाव और साल 2020 के विधानसभा चुनाव के बीच 37 फीसदी से अधिक दिव्यांग मतदाताओं में बढ़ोतरी हुई है।
 

सीख लिया है दिव्यांगता के साथ जीना : अभिनंदन
मैंने दिव्यांगता को स्वीकारा भी है और इसके साथ जीना भी सीखा है। हमारे लिए हर दिन संघर्ष से कम नहीं होता, लेकिन यकीन मानिए मुख्य धारा तक पहुंचने का यह सफर मैंने खुद तय किया है। मेरा नाम अभिनंदन जैन है और मैं दिल्ली का निवासी हूं। जब मेरा जन्म हुआ था उस दौरान मुझे कुछ सुनाई नहीं देता था, लेकिन माता-पिता को इसके बारे में दो साल बाद पता चला। सर गंगाराम अस्पताल में लंबे समय तक इलाज चला। जब छह साल की उम्र में आया तो डॉ. शलभ और डॉ. आशा अग्रवाल ने कोक्लोरे इम्प्लांट प्रत्यारोपित किया।

इसके बाद मैं शब्द, भाषा और संचार के उच्चारणों को सीखने लगा। कुछ मेहनत औरों ने की तो कुछ खुद भी। मेरे लिए यह सफर एकदम अलग था और 12वीं कक्षा में पीडब्ल्यूडी श्रेणी में टॉप करने के बाद मुझे दिल्ली यूनिवर्सिटी के गुरु गोबिंद सिंह कॉलेज में नियमित छात्र के रूप में एडमिशन मिल गया। पढ़ाई पूरी हुई तो मेरा चयन सरकार के ऑडिट एसोसिएट के रूप में हुआ। यहां भी न सरकार से मदद ली और न अन्य किसी से। कोरोना काल में ऑफिस का काम घर से ऑनलाइन करना मेरे जैसों के लिए आसान नहीं था, लेकिन इस पड़ाव को भी मैंने पार किया और खुद को समाज की मुख्यधारा तक लाने का काम किया है। 

पिता ने नहीं होने दिया मायूस, परिवार बना राही : ऋषि राज
यमुना और हिंडन के बीच नोएडा जिले का हिस्सा आज किसी पहचान का मोहताज नहीं है, परंतु वर्षों पहले यहां न स्कूल थे, न मूलभूत सुविधाएं। मेरा नाम डॉ. ऋषि राज है और मेरा परिवार इसी कोंडली बंगारी गांव में रहता था, जहां 80 के दशक में बाढ़ आती थी। पोलियो की चपेट में दोनों पैर आने के बाद मेरा संघर्ष शुरू हुआ। पोलियो का न टीका था और न कोई इलाज। परिवार को भी इसके बारे में कुछ नहीं पता था और धीरे-धीरे मेरे दोनों पैर पोलियो ग्रस्त हो गए। शिक्षा के लिए स्कूल की आवश्यकता होती है और मेरे गांव में स्कूल नहीं था। पिता लायक राम शिक्षा दिलाना चाहते थे। कई प्रयास भी किए, लेकिन यह आसान नहीं था। फिर उन्होंने झोपड़ी में ही स्कूल शुरू किया और छह से सात अध्यापक हमारे घर में ही रहने लगे। आसपास के पांच से सात गांव के बच्चे यहां आकर पढ़ने लगे। 

मैंने यहां से आठवीं तो कर ली, आगे की पढ़ाई मेरे लिए और कठिन थी। ग्रेटर नोएडा से नौवीं-दसवीं के बाद दनकौर से 12वीं की। जिस साइकिल पर मैं सवार रहता था उसे रोजाना 18 से 20 किलोमीटर तक हाथ से चलाते हुए आता-जाता था। डिग्री के लिए दिल्ली तक पहुंचा। इन दोनों जगह मेरी बहनें और जीजा का साथ रहा। पिता ने कभी मुझे मायूस नहीं होने दिया और इस सफर में मेरा परिवार राही बना। आज मैं दिल्ली ट्रांसको लिमिटेड में जनसंपर्क अधिकारी के रूप में कार्यरत हूं। एसएससी पास करने के बाद मेरी पहली नौकरी दिल्ली जल बोर्ड में लगी थी। अब तक 10 डिग्री हासिल कर चुका हूं और समाज की मुख्यधारा में रहकर पूरे परिवार के साथ जीवन बिता रहा हूं। 

विस्तार

दिव्यांगता कोई अभिशाप नहीं है। इसके साथ भी सफलता की सीढ़ी चढ़ा जा सकता है। हर साल 3 दिसंबर को पूरी दुनिया अंतरराष्ट्रीय दिव्यांग जन दिवस मनाती है, ताकि इन्हें भी समाज की मुख्य धारा से जोड़ा जा सके। 

इसमें सामान्य लोगों से सहायता भी मांगी जाती है और जागरूक भी किया जाता है, परंतु कुछ दिव्यांग ऐसे भी हैं जिनकी पहचान अक्षमता से नहीं क्षमता से है। वह तन से दिव्यांग हैं, लेकिन मन से नहीं। ‘अमर उजाला’ ऐसे दो लोगों की कहानी लेकर आया है, जिन्होंने बंदिशों की बेड़ियों को तोड़कर कामयाबी हासिल की है।

55 हजार से ज्यादा दिव्यांग

दिल्ली में 55 हजार से ज्यादा दिव्यांग हैं। संयुक्त राष्ट्र के इन आंकड़ों से साफ है कि करीब 15 फीसदी आबादी किसी न किसी दिव्यांगता की श्रेणी में आती है और ऐसे 80 फीसदी लोग विकासशील देशों में है। देश की राजधानी दिल्ली की बात करें तो यहां 55 हजार से अधिक दिव्यांग मतदाता हैं और कुल आबादी में भी इनकी बड़ी भागीदारी है। 

दिल्ली चुनाव कार्यालय के अनुसार, साल 2019 के लोकसभा चुनाव और साल 2020 के विधानसभा चुनाव के बीच 37 फीसदी से अधिक दिव्यांग मतदाताओं में बढ़ोतरी हुई है।

 

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