Noida Authority Toilet News : "निशुल्क शौचालयों की दुर्दशा!, जब सुविधा अभिशाप बन जाए, टॉयलेट की सफाई नहीं, बस गंदगी और अव्यवस्था की सौगात!", "शौचालय गंदगी का अड्डा क्यों बनते जा रहे हैं?, जब सुविधा फ्री मिले तो जिम्मेदारी भी तो विज्ञापन एजेंसी की बनती है!"

नोएडा, रफ्तार टुडे:
हम सब जानते हैं कि स्वच्छ भारत मिशन के तहत देशभर में निशुल्क शौचालयों का निर्माण किया गया ताकि आमजन, खासकर महिलाएं और बच्चे सुरक्षित, स्वच्छ व सम्मानजनक वातावरण में अपनी मूलभूत जरूरतों को पूरा कर सकें। लेकिन सवाल यह है कि जब इन शौचालयों की जिम्मेदारी लेने वाला कोई न हो, जब लोग खुद ही सार्वजनिक संपत्ति की कद्र करना भूल जाएं, तब क्या यह सुविधा अभिशाप बन जाती है?
साफ-सुथरे वॉशरूम का सपना, लेकिन हकीकत में गंदगी का अंबार
नोएडा सेक्टर-100 स्थित सेंचुरी अपार्टमेंट्स के बाहर मंगल बाजार के पास स्थित एक सार्वजनिक शौचालय, जहां हर वक्त एक कर्मचारी तैनात रहता है, वहां की स्थिति ने सवाल खड़े कर दिए हैं। एक महिला जब टॉयलेट उपयोग करने पहुंचीं, तो देखा कि फर्श पर पानी फैला है, हर ओर गंदगी है और सफाईकर्मी अपने मोबाइल में व्यस्त है। बिना कोई प्रतिक्रिया दिए वह महिला लौट गई, लेकिन अंदर ही अंदर असंतोष की ज्वाला धधक उठी।
टॉयलेट नहीं, बच्चों का प्लेग्राउंड बना दिया गया वॉशबेसिन
कुछ दिन बाद यही नजारा सेक्टर-12 पुलिस चौकी के पास स्थित टॉयलेट में देखने को मिला। सोम बाजार लगा हुआ था, भीड़ भी अच्छी-खासी थी। एक महिला अपने बच्चे को वॉशबेसिन पर बैठाकर उसकी सफाई करने लगी। दूसरा बच्चा वॉशबेसिन के नीचे खड़ा था, वहां पर भी उसकी सफाई की गई। दोनों महिलाओं ने बच्चों की धुलाई के बाद खुद भी चप्पल और पैर धोए, पानी की छींटे दीवार और कांच तक जा पहुंचे।
“मैं अवाक थी!”— टॉयलेट की दुर्गति देख कोई क्या कहे?
जिस वॉशबेसिन को सिर्फ हाथ धोने के लिए बनाया गया था, उसे बच्चों के मल-मूत्र धोने का स्थान बना दिया गया। नतीजा? गीली फर्श, बदबू, कीचड़ और हर तरफ फैला हुआ पानी। ऐसा नहीं कि टॉयलेट के वेस्टर्न और इंडियन सीट्स मौजूद नहीं थीं, लेकिन लोग जब चाहें जहां चाहें वहीं अपने हिसाब से काम कर लेते हैं।
“भैया, ये क्या हाल बना दिया है टॉयलेट का?”— सवाल तो बनता है!
जब महिला ने सफाईकर्मी से इस गंदगी की शिकायत की, तो वह चुप रह गया। जवाब में कोई सफाई नहीं, कोई खेद नहीं। ऐसा लगा मानो वह जानता हो कि जवाब देने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। महिलाएं, बच्चे आते रहेंगे, गंदगी फैलती रहेगी, और वह अकेला क्या-क्या साफ करेगा? आखिर उसे भी तो पता है कि जब इस्तेमाल करने वाले ही जिम्मेदार नहीं हैं, तो अकेली सफाई से क्या होगा?
दोष किसका? सफाईकर्मी, सरकार या हम सबका?
जिन शौचालयों में शुल्क लिया जाता है, वहां की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर होती है। लेकिन जो निशुल्क हैं, वहां सफाई को लेकर जवाबदेही नाममात्र की है। क्या मुफ्त सुविधा का मतलब यह है कि हम उसे गंदा कर दें? क्या यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी नहीं कि सार्वजनिक संपत्ति को सम्मान से उपयोग करें?
एक यात्रा की आपबीती— “मेरे पेट की दशा बहुत खराब थी…”
एक और घटना तब सामने आई जब एक महिला अपने भाई के साथ बस से यात्रा कर रही थी। कनॉट प्लेस के पास आते-आते स्थिति इतनी बिगड़ गई कि भाई-बहन चलती बस से उतर पड़े और किसी टॉयलेट की तलाश में दौड़े। सामने एक टॉयलेट दिखा, लेकिन वह ‘जेंट्स’ टॉयलेट था। फिर भी, महिला अंदर गई क्योंकि ज़रूरत बड़ी थी। लेकिन जब वह बाहर निकली, तो उसके चेहरे पर खुशी नहीं, गहरी निराशा थी— “क्या ऐसा ही होता है महिलाओं के लिए बनाए गए टॉयलेट?”
क्या समाधान सिर्फ बहस है या समझदारी भी है ज़रूरी?
सरकार सुविधाएं दे रही है, कर्मचारी तैनात कर रही है, लेकिन क्या उपयोग करने वालों की भी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या हमें खुद से सवाल नहीं करना चाहिए कि एक साफ-सुथरे टॉयलेट को गंदा करना हमारी सभ्यता का कौन-सा हिस्सा है? जब सुविधा मुफ्त हो, तो उसका मतलब यह तो नहीं कि हम उसका दुरुपयोग करें।
एक छोटी सोच, एक बड़ा फर्क
अगर हर व्यक्ति यह तय कर ले कि टॉयलेट को वैसा ही छोड़े जैसा वह खुद देखना चाहता है, तो बड़ी से बड़ी समस्याएं हल हो सकती हैं। महिलाओं से अपील है कि वे अपने बच्चों को यह सिखाएं कि सार्वजनिक शौचालयों में कैसे व्यवहार करना है। यह घर से शुरू होने वाला एक संस्कार है।
निष्कर्ष: गुस्सा क्यों आता है?
गुस्सा इस बात का नहीं कि पानी फैला था, या सफाईकर्मी फोन पर था। गुस्सा इस बात का है कि जब देश बदल रहा है, सुविधाएं मिल रही हैं, तब भी हम मानसिकता में बदलाव नहीं ला पा रहे। निशुल्क शौचालय एक सुविधा है, उसका अपमान न करें।
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