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Two Big Movements Of The 21st Century  – आकलन : 21वीं सदी के दो बड़े आंदोलन, दूसरा पहले पर भारी

सार

दिल्ली की जमीन से शुरू होकर देश-दुनिया तक पहुंची अन्ना व किसान आंदोलन की आवाज। 

किसान आंदोलन का एक दृश्य (फाइल फोटो)
– फोटो : अमर उजाला

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21वीं सदी के दो बड़े जन आंदोलन दिल्ली की जमीन से किए गए। दोनों आंदोलनों की तपिश ने दिल्ली की सीमाओं को लांघा और देश-विदेश तक अपना असर महसूस कराया। अप्रैल 2011 के जनलोकपाल आंदोलन को धार रामलीला मैदान से दी गई जबकि रामलीला मैदान पहुंचने से पहले किसानों को सीमाओं पर रोक दिए जाने से नवंबर 2020 से सड़क ही संघर्ष स्थल बन गई। हालांकि, दोनों की प्रकृति अलग-अलग है। एक कानून बनवाने के लिए था और दूसरा कानून रद्द करवाने के लिए। अन्ना आंदोलन दिल्ली से पूरे देश में फैला और उसके नेतृत्व ने आंदोलन की दिशा तय की। वहीं, किसान आंदोलन देश से होकर दिल्ली आया।  

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शुक्रवार को तीनों कृषि कानूनों की वापस लेने के एलान के बाद जन आंदोलनों पर बारीक नजर रखने वाले मानते हैं कि किसान आंदोलन तुलनात्मक तौर पर ज्यादा सफल रहा है। फैलाव ही नहीं, लगाव के मामले में भी इसने अन्ना आंदोलन को पीछे छोड़ दिया है। कभी भाजपा के थिंक टैंक माने जाने वाले दक्षिणपंथी विचारक केएन गोविंदाचार्य कहते हैं कि देशहित में तनाव पिघलना चाहिए। संवाद की स्थिति बनी रहनी जरूरी है। 

दोनों पक्षों को इसे प्रतिष्ठा का सवाल नहीं बनाना चाहिए। आंदोलन की यह सफलता तो है। सरकार से संवाद के स्तर पर निपटारा हुआ है। इसके अलावा भी बहुत से पहलू हैं, जिन पर बात होनी चाहिए। किसान आंदोलन की भी समीक्षा होनी चाहिए। आंदोलन के भी व्याकरण, गतिशास्त्र का विश्लेषण आवश्यक है। यह देश का व्यापक विषय है। न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी गारंटी मिलनी चाहिए।

वहीं, अन्ना आंदोलन से जुड़े और इस वक्त युवाओं के रोजगार के सवाल पर हल्ला बोल आंदोलन चला रहे अनुपम का कहना है कि आधुनिक भारत की निर्माण प्रक्रिया ही आंदोलन के बीच से गुजरी है। 21वीं सदी के दो बड़े आंदोलन हुए, लेकिन इसमें से किसान आंदोलन अभी तक का ज्यादा लोकतांत्रिक और सफल रहा है। जिस तरह से दुश्मन करार देने के हद तक किसान आंदोलन के खिलाफ सरकार अभी तक खड़ी दिख रही थी, उस तरह का माहौल अन्ना आंदोलन के दौरान नहीं था। विरोध की तीव्रता तब बेहद कम थी। विरोधी आवाजों को तत्कालीन सरकार में स्पेस मिल गया था। लेकिन आज हालात उलटे हैं। वैसे भी, सफलता-असफलता का पैमाना मांगों के पूरी होने या खारिज होने से नहीं आंका जा सकता है।

कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का कहना है कि दोनों आंदोलनों का मकसद अलग है। दोनों के बीच की तुलना दूर तक नहीं की जा सकती। फिर भी, किसानों का आंदोलन पूरी दुनिया में अब तक का सबसे लंबा आंदोलन साबित हुआ है। शुक्रवार का प्रधानमंत्री का एलान अहम है। सरकार को किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन के सामने झुकना पड़ा। हालांकि, मकसद के हिसाब से आंदोलन ने आधी लड़ाई जीत ली है। मगर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी गारंटी मिलने तक खेती का संकट खत्म नहीं होगा।

खान-पान व सांस्कृतिक कार्यक्रमों का केंद्र बना था आंदोलन स्थल
कृषि कानूनों के खिलाफ डटे किसानों का आंदोलन पूरे वर्ष सिर्फ आंदोलन के लिए ही लोगों की जुबान पर नहीं रहा। बल्कि, मौसम के साथ बदलते खानपान, लंगर, दिवाली-होली मिलन, बॉलीवुड गायकों के आगमन व सांस्कृतिक कार्यक्रमों के रंगारंग आयोजन की वजह से भी आकर्षण का केंद्र बना रहा। हर त्योहार पर यहां देश की संस्कृति के अलग-अलग रंग 358 दिन पूरे कर चुके आंदोलन के साथ-साथ देखने को मिले।

 बीते साल 26 नवंबर को गाजीपुर, सिंघु व टीकरी बॉर्डर पर शुरू हुए आंदोलन के साथ किसान पंजाब व हरियाणा से अपने साथ बड़ी-बड़ी ट्रॉलियों में रसद लेकर पहुंचे थे। बॉर्डर के फुटपाथ व सड़क को ही रसोईघर में तब्दील कर पहले दिन से ही लंगर सेवा शुरू कर दी गई थी। सर्दी में जहां मक्के की रोटी व सरसों के साग का स्वाद आंदोलन में बना रहा। वहीं, गर्मी में लस्सी, छाछ, शरबत, ठंडाई व शिकंजी बढ़ते तापमान से राहत का जरिया बनी रही। बॉर्डर पर बढ़ती आंदोलनकारियों की भीड़ के साथ आटा गूंथने से लेकर रोटी व चावल बनाने की मशीन का भी इंतजाम किया गया। इसके अलावा चाय व कॉफी की चुस्कियों के साथ आंदोलन की नई नीतियां तय होती रही। 

26 जनवरी को आंदोलन ने लिया यू टर्न
नौ माह से चले आ रहे किसान आंदोलन ने 26 जनवरी को यू टर्न ले लिया। प्रदर्शनकारियों के अराजक होने के बाद दिल्ली में आईटीओ, लालकिला, नांगलोई, मुकरबा चौक, बुराड़ी चौक सहित दिल्ली के कई क्षेत्रों में हिंसा हुई थी। हिंसा मामले में पुलिस की ओर से इस मामले में 50 से अधिक मामले दर्ज किए गए थे। इस मामले में लालकिला पर धार्मिक ध्वज फहराने के मामले में आरोपियों की तलाश के राज्यों में छापेमारी की गई थी। मौसम का मिजाज बदलने के बाद भी किसानों की संख्या में थोड़ी कमी जरूर आई, लेकिन आंदोलन कमजोर नहीं होने दिया गया। किसानों को बॉर्डर पर ही रोकने के लिए दिल्ली पुलिस की किसान नेताओं के साथ कई दौर की बातचीत हुई। आखिर में तय हुआ कि निश्चित संख्या में 200 किसान जंतर मंतर पर पहुंचकर अपनी संसद लगाएंगे। इसमें हर संगठन से पांच-पांच किसान शामिल हुए। 22 जुलाई से नौ अगस्त तक इसी तरह आंदोलनकारियों ने किसान संसद लगाई गई।

कृषि कानूनों की वापसी की मांग पर करीब एक साल से दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों को गुरु पर्व पर तोहफा मिला। शुक्रवार सुबह प्रधानमंत्री के एलान के साथ ही किसान आंदोलन 360 डिग्री तक घूम गया। आंदोलन जहां से चला था, कमोवेश वहीं पहुंच गया है।

हालांकि, परिधि से अभी भी किसानों की निगाहें केंद्र पर ही हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी और बिजली संशोधन बिल की वापसी पर किसानों की आस केंद्र पर टिकी है। साल भर से चल रहे किसान आंदोलन ने कई उतार चढ़ाव देखे।

दरअसल, 26 नवंबर, 2020 से पंजाब, हरियाणा से किसान दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचने लगे। अगले ही दिन दिल्ली में प्रवेश करने की कोशिश में किसानों को रोकने के लिए सुरक्षा बलों ने आंसू गैस का इस्तेमाल किया। इस जद्दोजहद में पुलिस और अर्धसैनिक बलों को रात तक डटे रहना पड़ा। इसके बाद सीमाओं से किसानों को दिल्ली में प्रवेश से रोकने के लिए सिंघु, टीकरी और गाजीपुर पर बैरिकेडिंग का सिलसिला शुरू हो गया। 11 महीने, 24 दिन यानी 5 लाख, पांच हजार, 400 मिनट (8590 घंटे) के दौरान किसान अपनी मांगों पर डटे रहे। अब तक साल का 98.08 फीसदी वक्त बीत चुका है, फिर भी साल पूरा होने में बचे वक्त में ही आंदोलन का रुख तय होने की उम्मीद है।

वक्त के साथ और पुख्ता हुई बैरिकेडिंग
सिंघु, टीकरी और गाजीपुर बॉर्डर पर किसानों के तेज होते विरोध और प्रदर्शनकारियों को रामलीला मैदान पहुंचने से रोकने के सीमाओं पर सुरक्षा को पुख्ता किया जाने लगा। मैटेलिक बैरिकेड लगाने के बाद भी सुरक्षा को पुख्ता करने के लिए सिंघु और टीकरी बॉर्डर पर कंक्रीट स्लैब और लॉरी और जेसीबी मशीनें और क्रेन भी लगाए गए। टीकरी पर सुरक्षा के लिए कीलें भी लगा दी गई तो सिंघु बॉर्डर पर फेंसिंग किए जाने से आवागमन पूरी तरह बंद हो गया।

आंदोलन के बड़े नेता के तौर पर उभरे राकेश टिकैत
ट्रैक्टर रैली के बाद किसान नेता राकेश टिकेत किसानों के बीच एक बड़े नेता के तौर पर उभरकर सामने आए। राकेश टिकैत की बेबाक टिप्पणी और यूपी और उत्तराखंड चुनावों में सबक सिखाने के एलान कर दिया। इसी सिलसिले में टिकैत समेत संयुक्त किसान मोर्चा के कई नेता पश्चिम बंगाल चुनाव में भी पहुंचे। मिशन यूपी की शुरुआत के बाद उत्तराखंड चुनावों की तैयारी में जुट गए। 26 जनवरी को ट्रैक्टर रैली के बाद दिल्ली में हुई हिंसा के बाद टिकैत पर शिकंजा कसे जाने के कयास लगाए जाने लगे। इसी दौरान राकेश टिकैत ने एक बेहद भावुक अपील की। वह कैमरों के सामने मंच पर ही रोने लगे। इसके बाद पश्चिमी यूपी से बड़ी संख्या में किसान उनका समर्थन करने गाजीपुर बॉर्डर पर पहुंचने लगे। वहीं, पुलिस का दबाव गाजीपुर से कम हो गया। 

विस्तार

21वीं सदी के दो बड़े जन आंदोलन दिल्ली की जमीन से किए गए। दोनों आंदोलनों की तपिश ने दिल्ली की सीमाओं को लांघा और देश-विदेश तक अपना असर महसूस कराया। अप्रैल 2011 के जनलोकपाल आंदोलन को धार रामलीला मैदान से दी गई जबकि रामलीला मैदान पहुंचने से पहले किसानों को सीमाओं पर रोक दिए जाने से नवंबर 2020 से सड़क ही संघर्ष स्थल बन गई। हालांकि, दोनों की प्रकृति अलग-अलग है। एक कानून बनवाने के लिए था और दूसरा कानून रद्द करवाने के लिए। अन्ना आंदोलन दिल्ली से पूरे देश में फैला और उसके नेतृत्व ने आंदोलन की दिशा तय की। वहीं, किसान आंदोलन देश से होकर दिल्ली आया।  

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शुक्रवार को तीनों कृषि कानूनों की वापस लेने के एलान के बाद जन आंदोलनों पर बारीक नजर रखने वाले मानते हैं कि किसान आंदोलन तुलनात्मक तौर पर ज्यादा सफल रहा है। फैलाव ही नहीं, लगाव के मामले में भी इसने अन्ना आंदोलन को पीछे छोड़ दिया है। कभी भाजपा के थिंक टैंक माने जाने वाले दक्षिणपंथी विचारक केएन गोविंदाचार्य कहते हैं कि देशहित में तनाव पिघलना चाहिए। संवाद की स्थिति बनी रहनी जरूरी है। 

दोनों पक्षों को इसे प्रतिष्ठा का सवाल नहीं बनाना चाहिए। आंदोलन की यह सफलता तो है। सरकार से संवाद के स्तर पर निपटारा हुआ है। इसके अलावा भी बहुत से पहलू हैं, जिन पर बात होनी चाहिए। किसान आंदोलन की भी समीक्षा होनी चाहिए। आंदोलन के भी व्याकरण, गतिशास्त्र का विश्लेषण आवश्यक है। यह देश का व्यापक विषय है। न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी गारंटी मिलनी चाहिए।

वहीं, अन्ना आंदोलन से जुड़े और इस वक्त युवाओं के रोजगार के सवाल पर हल्ला बोल आंदोलन चला रहे अनुपम का कहना है कि आधुनिक भारत की निर्माण प्रक्रिया ही आंदोलन के बीच से गुजरी है। 21वीं सदी के दो बड़े आंदोलन हुए, लेकिन इसमें से किसान आंदोलन अभी तक का ज्यादा लोकतांत्रिक और सफल रहा है। जिस तरह से दुश्मन करार देने के हद तक किसान आंदोलन के खिलाफ सरकार अभी तक खड़ी दिख रही थी, उस तरह का माहौल अन्ना आंदोलन के दौरान नहीं था। विरोध की तीव्रता तब बेहद कम थी। विरोधी आवाजों को तत्कालीन सरकार में स्पेस मिल गया था। लेकिन आज हालात उलटे हैं। वैसे भी, सफलता-असफलता का पैमाना मांगों के पूरी होने या खारिज होने से नहीं आंका जा सकता है।

कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का कहना है कि दोनों आंदोलनों का मकसद अलग है। दोनों के बीच की तुलना दूर तक नहीं की जा सकती। फिर भी, किसानों का आंदोलन पूरी दुनिया में अब तक का सबसे लंबा आंदोलन साबित हुआ है। शुक्रवार का प्रधानमंत्री का एलान अहम है। सरकार को किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन के सामने झुकना पड़ा। हालांकि, मकसद के हिसाब से आंदोलन ने आधी लड़ाई जीत ली है। मगर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी गारंटी मिलने तक खेती का संकट खत्म नहीं होगा।

खान-पान व सांस्कृतिक कार्यक्रमों का केंद्र बना था आंदोलन स्थल

कृषि कानूनों के खिलाफ डटे किसानों का आंदोलन पूरे वर्ष सिर्फ आंदोलन के लिए ही लोगों की जुबान पर नहीं रहा। बल्कि, मौसम के साथ बदलते खानपान, लंगर, दिवाली-होली मिलन, बॉलीवुड गायकों के आगमन व सांस्कृतिक कार्यक्रमों के रंगारंग आयोजन की वजह से भी आकर्षण का केंद्र बना रहा। हर त्योहार पर यहां देश की संस्कृति के अलग-अलग रंग 358 दिन पूरे कर चुके आंदोलन के साथ-साथ देखने को मिले।

 बीते साल 26 नवंबर को गाजीपुर, सिंघु व टीकरी बॉर्डर पर शुरू हुए आंदोलन के साथ किसान पंजाब व हरियाणा से अपने साथ बड़ी-बड़ी ट्रॉलियों में रसद लेकर पहुंचे थे। बॉर्डर के फुटपाथ व सड़क को ही रसोईघर में तब्दील कर पहले दिन से ही लंगर सेवा शुरू कर दी गई थी। सर्दी में जहां मक्के की रोटी व सरसों के साग का स्वाद आंदोलन में बना रहा। वहीं, गर्मी में लस्सी, छाछ, शरबत, ठंडाई व शिकंजी बढ़ते तापमान से राहत का जरिया बनी रही। बॉर्डर पर बढ़ती आंदोलनकारियों की भीड़ के साथ आटा गूंथने से लेकर रोटी व चावल बनाने की मशीन का भी इंतजाम किया गया। इसके अलावा चाय व कॉफी की चुस्कियों के साथ आंदोलन की नई नीतियां तय होती रही। 

26 जनवरी को आंदोलन ने लिया यू टर्न

नौ माह से चले आ रहे किसान आंदोलन ने 26 जनवरी को यू टर्न ले लिया। प्रदर्शनकारियों के अराजक होने के बाद दिल्ली में आईटीओ, लालकिला, नांगलोई, मुकरबा चौक, बुराड़ी चौक सहित दिल्ली के कई क्षेत्रों में हिंसा हुई थी। हिंसा मामले में पुलिस की ओर से इस मामले में 50 से अधिक मामले दर्ज किए गए थे। इस मामले में लालकिला पर धार्मिक ध्वज फहराने के मामले में आरोपियों की तलाश के राज्यों में छापेमारी की गई थी। मौसम का मिजाज बदलने के बाद भी किसानों की संख्या में थोड़ी कमी जरूर आई, लेकिन आंदोलन कमजोर नहीं होने दिया गया। किसानों को बॉर्डर पर ही रोकने के लिए दिल्ली पुलिस की किसान नेताओं के साथ कई दौर की बातचीत हुई। आखिर में तय हुआ कि निश्चित संख्या में 200 किसान जंतर मंतर पर पहुंचकर अपनी संसद लगाएंगे। इसमें हर संगठन से पांच-पांच किसान शामिल हुए। 22 जुलाई से नौ अगस्त तक इसी तरह आंदोलनकारियों ने किसान संसद लगाई गई।

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